- खबरें लिखने से लेकर रुकवाने तक का लिया जाता है पैेसा
- प्रेस लिखी गाड़ियों से कराई जाती है डग्गामारी
- कैमरे के दम पर किया जाता है अधिकारियों का शोषण
- कोई किसी से कम नही अधिकाँश पत्रकारों ने बाँध रक्खे हैं महीने
- अपराधियों से लेकर खनन माफियाओं तक को दिया जाता है संरक्षण बदले में लिया जाता है काली कमाई का आधा हिस्सा
- सामाजिक जिम्मेदारी छोड़ शबाब कबाब और शराब तक सीमित हो चुकी है पत्रकारिता
- पुलिस तो मुफ्त में है बदनाम अवैध कमाई के मामले में पत्रकार बन चुके हैं बेताज बादशाह
- अगर भविष्य में प्रशासन कराये जांच तो सामने आएंगे चौकाने वाले तथ्य
महोबा, ( रितुराज राजावत ): भ्रष्टाचार जितना छोटा दिखने वाला शब्द है । दरअसल है नही ये उतना छोटा । पाताल की गहराइयों तक इस पेड़ ने अपनी जड़ें जमा ली हैं । काफी फल फूल चुका है ये अब । ऐसा नही है कि अधिकारी और नेता ही बस इसमें लगे हुए फल का आनन्द उठातें हैं । जिसको जब भी मौका लगता है । वो बिना सोंचे समझे इस भ्रष्टाचार रूपी पेड़ में लटकने वाले फल का स्वाद चख लेता है । अधिकांश व्यक्ति इस पेड़ को जल्द से जल्द काट कर भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने की बात करतें हैं । जो कि इतना आसान नही दिखता है । भ्रष्टाचार को उजागर करने वाली पत्रकारिता ही अब इस पेड़ का अभिन्न अंग बन चुकी है । और चौथे स्तम्भ का संरक्षण पा कर ये भ्रष्टाचार का पेड़ दिन दूनी रात चौगनी तरक्की कर दिन ब दिन अपनी जड़ें और भी मजबूत कर रहा है । बात की जाए अगर पत्रकारिता की तो पहले वही पत्रकार बनता था । जिसके मन मे समाज में फैली हुई बुराइयों को खत्म करने की टीस होती थी । अत्याचार और भ्रष्टाचार से ताल ठोक कर लड़ना उसका ना खत्म होने वाला जुनून होता था । बिना किसी लोभ लालच के खबरें लिख कर बड़े से बड़े भ्रष्टाचारी को छटी का दूध याद दिला देना वो अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी समझता था । घिसी हुई चप्पलें खद्दर का कुर्ता और कंधे पर लटकने वाला एक गन्दा सा झोला उसके ना बिकने वाले जमीर की निष्पक्ष गवाही देते थे । पर हालात ए दौर आज इसके बिल्कुल विपरीत हैं । अब पत्रकारों का आंकलन उनकी वेशभूषा और परिवेश को देख कर किया जाता है । वो जमाना कुछ और था जब सच्चाई का साथ देने वाले पत्रकार के पास एक टूटी हुई साइकिल इस बात का सबूत देती थी कि उसका जमीर अभी जिंदा है और उसकी आत्मा बिकाऊ नही है । पूर्व के पत्रकार सच्चे और ईमानदार हुआ करते थे । जो कि आज के नही हैं । अब तो खबरें भी उन्ही की लिखी जातीं है जिनसे कुछ लाभ होता है । आज अपनी कलम को बेचकर अपने शौक पूरे करते हैं पत्रकार । डग्गामारी से लेकर अपराधियों को संरक्षण देने में अब पत्रकारों को किसी भी प्रकार का कोई गुरेज नही है । बस वाजिब कीमित भर मिल जाये संरक्षण की । पुलिस को तो ख़ामख़ा बदनाम कर के माहौल बना दिया गया है । कि पुलिस भ्रष्टाचार फैलाती है । परंतु उन पत्रकारों को क्या कहा जाए जो सटोरियों से लेकर अवैध खनन तक कराकर अपनी जेबें काली कमाई से भरतें हैं । अब सामाजिक जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर शबाब कबाब और शराब तक ही सीमित हो चुकी है पत्रकारिता । जब तक पत्रकार की जीन्दगी का हिस्सा ये तीनो शौख नही बन जातें हैं । तब तक आज का पत्रकार अपने आपको पत्रकारिता के उपयुक्त ही नही समझता है । अब अमूमन कैमरे से उन्ही की फोटो ली जाती है जिनसे भविष्य में कुछ खास काम कराये जा सकें । या फिर उन्हें खबर का हिस्सा बनाया जाता है जिनसे त्वरित लाभ लिया जा सके । किसी के दुख उसकी लाचारी से आज के पत्रकार को कोई सरोकार नही है । अगर कुछ है तो ये की उसकी लाचारी को भुना कर कैसे भरी जाए अपनी जेब । अधिकांश पत्रकार तो इसी बात पर ही अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाये रहतें हैं कि कैसे बंधे अधिकारियों से महीना । किस प्रकार से फंसाएं लँगड़ी ताकि किया जा सके अधिकारियों का दोहन । और चढा दी जाए भ्रष्टाचार के देवता को खुश करने में उस बेचारे अधिकारी के मेहनत से कमाए हुए गुलाबी नोटों की बलि । काफी बदल गया है माहौल । पहले और अब में काफी अंतर दिखाई पड़ता है । पहले साफ सुथरी पत्रकारिता होती थी । पर आज हालात बद से बदत्तर है । जिसको मौका मिल जाता है वो झट से अंगूर गपक लेता है । और जिसको नही मिलता वो अंगूर खट्टे कहकर ये सिद्ध करने की बनावटी कोशिस करता है कि वो एक ईमानदार पत्रकार है । मैं ये नही कहता कि सब के सब भृष्ट हैं । पर ईमानदार पत्रकारों की तलाश करना थोड़ा मुश्किल है । क्योंकि पत्रकार की खाल पहने कुछ भेड़िये घूम रहे हैं
रितुराज राजावत
(लेखक वर्तमान में पत्रकार है. )