नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि परेशानी के वक्त में पत्नियों की देखभाल करना पुरूषों का प्रमुख कर्तव्य है और बीमार जीवन साथी की मदद का वायदा विवाह विच्छेद के समझौते का वैध आधार नहीं है।
न्यायमूर्ति एम वाई इकबाल और न्यायमूर्ति सी नागप्पन की पीठ ने कहा कि पत्नी की मदद और उसका संरक्षण करना पुरूष का पहला कर्तव्य है। न्यायालय ने परस्पर सहमति के बावजूद पति को तलाक की अनुमति देने से इंकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि उसकी पत्नी स्तन कैंसर से ग्रस्त थी और इसलिए मंहगे इलाज की जरूरत को देखते हुए ही उसने समझौते के लिए सहमति दी थी।
पीठ ने कहा, ”प्रतिवादी पति का यह कर्तव्य है कि वह याचिकाकर्ता पत्नी के स्वास्थ्य और सुरक्षा का ध्यान रखे। इस मामले में भी याचिकाकर्ता को इलाज की सुविधा उपलब्ध कराना पति का ही मुख्य कर्तव्य है। यह पहले से ही निर्धारित पति का कर्तव्य है बशर्ते उसके पास पर्याप्त संसाधन हों और वह कर्मठता से उसकी देखभाल कर रहा हो। पीठ ने कहा, ”पेश मामले में प्रतिवादी पति ने कुछ करने के लिए करार किया है जबकि यह उसका कर्तव्य था और यह समझौते का वैध आधार नहीं है। न्यायालय ने कहा कि हिन्दू विवाह पवित्र और ‘पावन होता है और उसकी परेशानी के दौर में उसे उसके हाल पर छोडऩा नहीं चाहिए। पीठ ने कहा, ”एक हिन्दु पत्नी के लिए उसका पति उसका भगवान है और उसकी जिंदगी अपने पति के लिए निस्वार्थ सेवा और समर्पण के लिए हो जाती है। वह अपनी जिंदगी और प्यार ही साझा नहीं करती है बल्कि अपने पति के खुशी और गम तथा कठिनाईयों को भी साझा करती है और इस तरह वह अपने पति की जिंदगी और गतिविधियों का अभिन्न अंग बन जाती है। न्यायालय ने इस मामले में तलाक देने की बजाए इसे हैदराबाद की कुटुम्ब अदालत को स्थानांतरित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि पति समझौते की कुल 12.5 लाख रूपए की राशि में से पांच लाख रूपए ततकाल पत्नी को दे।