पीलीभीत.पीलीभीत के सर्जन डॉ शैलेन्द्र को आप सिर्फ मेडिकल साइंस का रटन्तू तोता मत समझ लीजिएगा। जो उन्हें करीब से जानते हैं वो भली भांति जानते हैं कि ये जनाब तो चलती फिरती यूनिवर्सिटी हैं। और भूलकर भी आप उनसे डिबेट में भी मत उलझियेगा, बेशक हार जायेंगे। वजह यह कि पिछले एक दशक में सर्जरी से मिले वक्त को इन साहब ने किताबों के बीच खपा डाला है।
Dr Shailendra Singh Gangwar in facebook click here
आप जानकर हैरत में पड़ जायेंगे कि इस सर्जन को एमबीबीएस-एमएस जैसी आला डिग्री के बाद भी चैन नसीब नहीं हुआ। मध्यमवर्गीय भारतीय परिवारों की ख्वाबों की यह आला प्रोफेशनल डिग्री मानो इन साहब के लिए ज्ञान के पथ का एक अस्थायी मुकाम था और इसके बाद का असली सफर शायद अभी शुरू होना बाकी था। ‘किताबों का कीड़ा होने’ का दूसरा अर्थ भी ‘शैलेन्द्र गंगवार होना’ ही शायद होगा। यह कीड़ा होना ही तो है, जो डॉ शैलेन्द्र को आज तक पढ़ने-पढ़ाने के दौर में ही ठहराये हुए है। आप शायद ही जानते हों कि लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कालेज का यह सर्जन अब तक अलग-अलग तरीके की हजारों किताबें घोंट चुका है, और आधा दर्जन डिग्रियां भी अपने नाम के साथ चस्पा कर चुका है। जानकर हैरत करेंगे कि मामूली कद काठी का आम सा दिखने वाला यह चिकित्सक अब तक ‘चिकित्सा’, ‘पत्रकारिता’, ‘हिन्दी’, ‘अर्थशास्त्र’ और ‘राजनीति शास्त्र’ से पोस्टग्रेजुएट कर चुका है, ‘कानून’ (लॉ) की डिग्री ले चुका है और नये दूसरे मुकाम हासिल करने के लिए अभी भी बेसब्र है। दूसरे अर्थों में अगर कहें तो डॉ शैलेन्द्र सिंह गंगवार नाम के शख्स में आप शल्य चिकित्सक, जर्नलिस्ट, अर्थ शास्त्री, राजनाति शास्त्री, हिन्दी का ज्ञाता और वकील भी तलाश सकते हैं, जो मुलाकात के दौरान गाहे-बगाहे आपको नजर भी आ जायेगा।
बकौल डॉ शैलेन्द्र “ ये मुश्किल काम बिल्कुल नहीं था। किताबें बचपन से ही मेरी दोस्त थीं, और दुनिया को समझने का जरिया भी। डिग्रियां बस यूं ही जुड़ती चली गईं। यह जरूर है कि किताबें न होतीं तो शायद मेरे व्यक्तित्व में विविधता भी न होती, शायद एक चिकित्सक के तौर पर ही मेरा सफर खत्म हो जाता ”
आप शायद सोच रहे होंगे कि एक शल्यचिकित्सक के पेशे में डॉ शैलेन्द्र को वक्त कैसे मिलता होगा। वो राज हम खोल देते हैं। दरअसल इस सर्जन का हाथ सर्जरी में इतना सधा है कि जो ऑपरेशन कोई दूसरा चिकित्सक तीन से चार घंटे में करता होगा, उसी सर्जरी को करने में डॉ शैलेन्द्र को महज एक घंटे के करीब ही लगता है। यानी दो घंटे की सीधी बचत। समय एक और तरीके से बच जाता है। आप को और हमें जिस सात घंटे की नींद में आराम मिलता है उसकी मियाद डॉ शैलेन्द्र के लिए महज साढ़े तीन घंटे ही है। और वो बचा समय डॉ शैलेन्द्र का किताबों के हवाले हो जाता है। अब इतनी अलग अलग तरह की किताबों में कोई उळझा रहेगा तो जाहिर है शख्स कुछ अलग सा तो हो ही जायेगा। अब यह चिकित्सक भी कुछ उलझे-उलझे काम करता रहता हो, तो भला ताज्जुब क्यों हो। चिकित्सकीय पेशे के शिखर पर बैठा कोई डाक्टर, सफलता का लुत्फ लेने की बजाए अगर जिले के राजकीय आयुर्वेदिक कालेज में पढ़ाने के लिए पहुंच जाये और वो भी बिना वेतन के, और दो साल तक यह सिलसिला जारी रखे तो इसे आप क्या कहेंगे? इस तरह के वाकयों का एक अंतहीन सिलसिला है, और पीलीभीत के लोग इससे वाकिफ भी हैं।